भाग्य को कोसूं या इतराऊं ना कह पाऊं ना सह पाऊं मानव रूप में बीज रोपाई अहो भाग्य यह रचना पाई माँ के आनन्दित वो पल माँ बनने की चाह अटल गर्भ होने का ज्ञान हुआ माँ बनने का अभिमान हुआ सबने खुशियां खूब मनाईं बाल-गोपाल होने की दुहाई पर ख़ुशी यह टिक न पाई मानो कोई विपत्ति आई किसी तरह यह ज्ञान हुआ गर्भ में बेटी का भान हुआ मायूसी घर-भर में छाई सबके मन में चिंता समाई जन्म से पूर्व ही कर्ज हो गया दहेज़ समाज का मर्ज हो गया ब्याह को धन जुटाना होगा दहेज़ की गठरी बनाना होगा सबके मन में विचार ये आया भ्रूण हटाना सबको भाया माँ के मन में भय समाया यह विचार ना उनको भाया खुद हौंसला न जुटा सकी विरोध अपना न जता सकी सबके विचारों के आगे मौन उनकी इच्छा गो गयी गौण कभी तो मुझसे पूछा होता ब्याह बिना भी जीवन होता बेटा बनकर मैं रह लेती खूब कमाती सेवा करती इतना जो विश्वास वो करती बेटी पाकर धन्य समझती सोच जो अपनी बदली होती मैं भी गर्भ में चैन से सोती मेरी इच्छा जो पूछी होती अपने भाग्य पर मैं ना रोती नारी बिना न वंश बढ़ पाए न बेटों का ब्याह रचाए सरल उपाय जो सबने पाया मेरा ही अस्तित्व मिटाया किसने यह अधिकार दिया जन्म से पूर्व मझे मार दिया पशुओं में नहीं ऐसी बीमारी मनुष्य है पशुता पर भी भारी।
विजय कुमार सिंह